शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है…
ईमान फिर किसी का नंगा हुआ है.
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है..
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
फिर से गलियां देखो खूनी हुई हैं.
गोद कितने मांओं की सूनी हुई हैं..
उस इन्सान का, क्या कोई बच्चा नहीं है?
वो इन्सान क्या, किसी का बच्चा नहीं है??
हाँ, वो किसी हव्वा का ही जाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है…
लोथड़े मांस के लटक रहे हैं.
खून किसी खिडकी से टपक रहे हैं..
आग किसी की रोज़ी को लग गयी है.
कोई बिन माँ की रोजी सिसक रही है..
हर एक कोने आप में ठिठक गये हैं.
बच्चे भी अपनी माँओं से चिपक गये हैं..
इन्सानियत का खून देखो हो रहा है.
ऊपर बैठा वो भी कितना रो रहा है..
दूर से कोई चीखता सा आ रहा है.
खूनी है, या जान अपनी बचा रहा है..
और फिर सन्नाटा सा पसर गया है.
जो चीख रहा था, क्या वो भी मर गया है??
ये सारा आलम उस शख्स का बनाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है…
वक्त पर पोलीस क्यों नहीं आई?
क्योंकी, ये कोई ऑपरेशन मजनूं नहीं था..
नेताओं ने भी होंठ अपने बन्द रक्खे.
क्योंकि, खून से हाथ उनके भी थे रंगे..
सरकार भी चादर को ताने सो रही थी.
उनको क्या, ग़र कोई बेवा हो रही थी..
पंड़ित औ मौलवी भी थे चुपचाप बैठे.
आप ही आप में दोनों थे ऐंठे..
हमने भी, अपना आपा खो दिया था.
जो हो रहा था, हमने वो खुद को दिया था..
दोषी हम सभी हैं, जो दंगे हुए हैं.
ईमान हम सभी के ही, नंगे हुए हैं..
खून से हाथ हमसभी के ही, रंगे हुए हैं…
पर दंगे का वो सबसे बड़ा सरमाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है…
चंद सिक्कों की हवस, और कुछ नहीं था.
हिन्दू ना मुसलमां, कोई कुछ नहीं था..
हिन्दू नहीं, जो इन्सान को इन्सां ना समझे.
मुसलमां नहीं, जो इन्सानियत को ईमां ना समझे..
आपस में लड़ाये धर्म है हैवानियत का.
प्यार ही इक धर्म है इन्सानियत का..
हम कब तलक ऐसे ही सोते रहेंगे?
भड़कावे में गैरों के, अपनों को खोते रहेंगे??
बेशर्मों से तब तलक हम नंगे होते रहेंगे?
बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!! बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!!!
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कितने बच्चे सोते हैं रोज़ रखकर पेट में लातें अपनी
कितने बच्चे सोते हैं रोज़ रखकर पेट में लातें अपनी
बना नहीं अभी कच्चा है कह देती है रोकर जननी ।
भोर हुए उठते हैं जब पाते हैं दो ही सिकी रोटी
रोटी दो , बच्चे हैं छ: , भूख से बच्ची छोटी रोती,
कंठ डुबोकर आंसुओं में थककर बच्चे सो जाते हैं ।
सपनों में भी देखकर रोटी रोटी-रोटी चिल्लाते हैं ॥
एक तरफ है पैसों की कमी , एक तरफ खूब बर्बादी है
एक भाई हँसे रोये दूजा रोये भला ये कैसी आज़ादी है ।
अपनी जिद की खातिर कुछ लोग नित पानी सा धन बहाते हैं
तनिक-तनिक सी बात-बात पर देखो उत्सव मनाते हैं ।
नहीं कुछ परवाह औरों की इनको तो जश्न मनाना है ।
जो भरे हुए मस्त बादल हैं उनको ही नीर पिलाना है ॥
तुम चाहते हो उत्सव करना तो रोतों को हँसियाँ बाँटो
जो पानी पीकर जीते हैं तुम उनको रोटी बाँटो ।
हम अलग -अलग चलेंगे तो दुनिया हमको खा जायेगी
मिटटी के मोल बिक जायेंगे , दासता फ़िर से छा जायेगी
मिलकर सबको निज देश का फ़िर भाग्य बनाना होगा
जो घिरे हुए हैं अन्धेरे में उन्हें दीप दिखाना होगा ।
मानवता के मूल्यों का यही सही मूल्य कहलायेगा
जब ज्ञान – दीप से मानव अज्ञान का तिमिर मिटाएगा ।
भूख, गरीबी, लाचारी के सब शब्द इससे मिट जायेंगे
भोजन होगा हर प्राणी को हर मुख कमल सा मुस्कुराएगा ।
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गाँव की लड़की
याद आ गई खाते हुए कैथा
लाल मिर्च वाले नमक के साथ
और सुनाई दी उसकी
तेज़ मिर्च वाली
चटकारे की चटाक !
फिर फीते से बंधी
तेल लगी कसी हुई
दो चोटियाँ
बीच में सीधी सपाट
उसकी माँग
जैसे बंटे हो दो हिस्से
और एक भी बाल को
इजाज़त नहीं पार करने की
वो बाड़ !
बैठी दो सहेलियों के साथ
चटाचट खेलती गुट्टों की आवाज़
चट -चट …….ख़ट-खट
खिलखिलाती उन्मुक्त हँसी
वो खनकती आवाज़ !
नीला कुर्ता सफ़ेद सलवार
कुर्ते में चिमटी से लगाया हुआ दुपट्टा
जाती हुई स्कूल अपने
छोटे भाई-बहनों के साथ
जैसे जाना है किसी और ही जहान
बस उड़ान को
तैयार हो रहे पंख !
चूल्हे में कंडे सुलगाती
फुंकनी से फूंक मारती
चिमटे से लकड़ी सुधारती
धुँए से आँखों को मचलती
और फिर जलते चूल्हे पर
रखती हुई अदहन चावल का
काटती हुई साग
एक साथ
सारा काम कर लेने का
विश्वास !
मोटा लगा आल्ता
चौड़ी सी पाजेब और
तीन -तीन बिछुए
लाल साड़ी सपाट माँग में
आखिर तक भरा सिन्दूर
माथे पे बड़ी सी बिंदी
कलाइयों में भरी चूड़ियाँ
ओढ़े हुए पिछौरी
लम्बा सा घूँघट
थोड़ी हील की चप्पल
एक नया ही रूप !
फिर सुखाती हुई कथरी
गोद में बच्चा
चढ़ा चूल्हा, चौका-बासन
बिखरे बाल
अधखुला शरीर
घुटने तक चढ़ी बिना फ़ॉल की साड़ी
बटोर रही हैं आँगन
आँचर में अभी भी बंधा है कैथा
कि खाएगी फुरसत में कभी
हाँ वही गाँव की लड़की !
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बुरे कर्मों का देखो मैंने कितना दुःख उठाया है
बुरे कर्मों का देखो मैंने कितना दुःख उठाया है
मेरा साया मुझको ही अपनाने से कतराता है
जिसको मारी ठोकर आज उसी के दर पे जाता हूँ
रो-रोकर अपने दिल का औरों से हाल छुपाता हूँ
कोई किसी का नहीं यहाँ कहकर जी बहलाता हूँ
आदमी देखो, कैसे यहाँ खुद की चिता जलाता है
मेरा साया मुझको ही अपनाने से कतराता है
जिसने चाहा दिल से मुझको उसी का अवसान किया
उस डाली को काटा मैंने जिसने धूप-छाँव दिया
इक छोटी-सी भूल ने मेरे दिल में ऐसा घाव किया
अंत समय आया तो अब अंतर्मन पछताता है
मेरा साया मुझको ही अपनाने से कतराता है
सबको समझा याचक और खुद को समझा दानी
यही भूल बन गयी मेरे जीवन की करूण-कहानी
हाय, अनजाने में न जाने कितनों की हुई है हानि
सोचा तो ये जाना सबको नाच वही नचाता है
मेरा साया मुझको ही अपनाने से कतराता है
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आहिस्ता – आहिस्ता !
जैसे ही सिल के दाँत
घिसने लगते हैं
उसे फिर से छिदवाती है औरत
पत्थर पर चलती हुई
छेनी और हथौड़ी की मार
थोड़ा खुरच देती है सिल को
और बार – बार लगातार
प्रहार के बाद
तैयार होती है सिल
पूरी तरह
अब जो चाहे पीसो
पिसेगा
पहले थोड़ी खिसकन
ज़रूर निकलेगी
आहिस्ता – आहिस्ता
सब गायब !
तैयार की जाती है औरत
भी इसी तरह
रोज छेदी जाती है
उसके सब्र की सिल
हथौड़ी से चोट होती है
उसके विश्वास पर
और छेनी
करती है तार – तार
उसके
आत्म सम्मान को
कि तब तैयार होती है
औरत पूरी तरह
चाहे जैसे रखो
रहेगी
पहले थोड़ा विरोध थोड़ा दर्द
ज़रूर निकलेगा
धीरे
उठाया!
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चली है बेचैन हवा
चली है बेचैन हवा
ऐ खुदा ! रोक ले
रहम कर ऐ खुदा !
ये हवा रोक ले
उजड़ गयीं बस्तियाँ
मिट गयीं हस्तियाँ
बुझ गयीं तूफ़ान में
टिमटिमाती बत्तियाँ
डूब गयीं कगार पे
न जाने कितनी कश्तियाँ
ये अन्धकार बढ़ रहा
ऐ खुदा ! रोक ले
रहम कर ऐ खुदा !
ये हवा रोक ले
खुद अपनी सृष्टि में
क्यों कहर मचा रहा
दृश्य क्यों विनाश का
हमें तू दिखा रहा
ख्याल मेरे मन में ये
बार-बार आ रहा
क्यों सितम ढा रहा
ऐ खुदा ! रोक ले
रहम कर ऐ खुदा !
ये हवा रोक ले
नहीं रुकता प्रेम
नहीं रुकता प्रेम
कभी भी
नहीं …
कभी थमता भी नहीं
कि बिना संवाद के भी
जारी है
निरंतर संवाद !
मौन की भाषा
पढ़ती हैं आँखें
मौन के संवाद
बोलती हैं आँखें
और सुनता है ह्रदय
मौन की गूँज को
कि नहीं रुकता प्रेम
कभी भी
नहीं…
कभी थमता भी नहीं ….!
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एक नया सा जहाँ बसायेंगे…
एक नया सा जहाँ बसायेंगे.
शामियाने नये सजायेंगे..
जहाँ खुशियों की बारिशें होंगी.
गम की ना कोई भी जगह होगी..
रात होगी तो बस सुकूं के लिये.
खिलखिलाती हुई सुबह होगी..
कोई किसी से ना नफरत करेगा.
करेगा प्यार, मोहब्बत करेगा..
जहाँ बच्चे ना भूखे सोयेंगे.
अपना बचपन कभी ना खोयेंगे..
देश का होगा, विकास जहाँ.
नेता होंगे सुभाष जैसे जहाँ..
जुल्म की दस्तां नहीं होगी.
अश्क से आँख ना पुरनम होगी..
राम-रहीम में, होगा ना कोई फर्क यहाँ.
ऐ खुदा तू भी, रह सकेगा जहाँ – २..
ना बना पाये, इस धरती को हम, स्वर्ग तो क्या.
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
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हर ख़ुशी में कोई कमी सी है
हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है
हँसती आँखों में भी नमी-सी है
दिन भी चुप चाप सर झुकाये था
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है
किसको समझायें किसकी बात नहीं
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है
ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है
कह गए हम ये किससे दिल की बात
शहर में एक सनसनी-सी है
हसरतें राख हो गईं लेकिन
आग अब भी कहीं दबी-सी है
दरिया (हास्य-व्यंग)
आज दोपहर बैठे थे हम
ऑफिस में अपने
ठंडी हवा के बीच
मगन थे सपने
तभी नज़र गई सामने
देखा कि दरिया है कोई
हम भी परेशान हो
लगे सोचने-भई ये क्या
कल तक तो यह था एक कमरा
जो आज बन गया है समंदर
मन में बड़ा कुतूहल भरा मैंने भी
बेचैनी से पूछा
अपनी साथी मित्र से-
कल तक न था यहाँ दरिया कोई
(तब पता चला ये
दरिया ही कमरा है)
छत से गर्मी की तेजी
बरदाश्त नहीं हो रही
तभी वो धीरे-धीरे पानी
नीचे दे रही
जिससे मिले ऑफिस को ठण्डक
सभी कर्मचारी हो जाएं तर।
तुम भी करो काम आराम से
न बेचैन हो इस धार से
यदि धार की गति बढ़ी
मालिक खुद ही टैंकर बुलाएंगे
या फिर उसमे-
रेगिस्तान को सुखाएंगे
पानी निकल जाएगा
तुम्हे कमरा नज़र आएगा
फिर न कहना कि
गर्मी से बेहतर वो दरिया था
जो गन्दा ही सही पर
पानी से भरा था…
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मैनें दिल से कहा
मैनें दिल से कहा
ऐ दीवाने बता
जब से कोई मिला
तू है खोया हुआ
ये कहानी है क्या
है ये क्या सिलसिला
ऐ दीवाने बता
मैनें दिल से कहा
ऐ दीवाने बता
धड़कनों में छुपी
कैसी आवाज़ है
कैसा ये गीत है
कैसा ये साज़ है
कैसी ये बात है
कैसा ये राज़ है
ऐ दीवाने बता
मेरे दिल ने कहा
जब से कोई मिला
चाँद तारे फ़िज़ा
फूल भौंरे हवा
ये हसीं वादियाँ
नीला ये आसमाँ
सब है जैसे नया
मेरे दिल ने कहा
वस्ल का सवेरा
पूछती रहती हो हर रोज़
तुम मुझसे सदा
कब ऐसा होगा
कब वैसा होगा
बाद वसलत के जब
हिज्र का न कोई फेरा होगा ।
मिलते हो तुम
एक-दो पल किये
उतर जाते हैं दिन के सारे क़र्ज़
आलम ऐसा है
मुख़्तसर वस्ल का
बाद शब -ए -बारात के
वस्लत का वो कैसा सवेरा होगा ।
अपनी क़श्ती लिए
हम जायेंगे कहाँ
शहद और चाँदनी में
भीगेंगे हम कहाँ
बरसों तकती रही मैं जिसको सदा
कब सचमुच वो चाँद मेरा होगा ।
आशियाँ सपनों का
कैसा होगा अपना
क्या कलकल बहेगी नदियाँ वहाँ
कैसा होगा मेरा वो नशेमन
सब्ज़ चादर बिछी होगी दूर तक
दराज़ तक न कोई आबादी का घेरा होगा ।
तुम बताओ मुझे
कब ऐसा होगा
रंग जायेंगे जब
घर दोनों एक रंग में
और अपनों के बीच
जब न लफ्ज़ कोई तेरा-मेरा होगा ।
मैं कहता हूँ तुमसे
ऐ प्रिये ! सुनो
वक़्त-ए-हिज्रां में तुम
गिन-गिन ख्वाब चुनो
वस्ल का एक दिन अपने सवेरा होगा
सपनें सारे तेरे पूरे हो जायेंगे
मिलेगी तुम्हें पुरनूर चाँदनी
और मुस्काता हुआ ये चाँद तेरा होगा ।
हर रोज़ एक नया चाँद तुम्हारे लिए
चाँद क्यूँ आ जाता है
मेरे तुम्हारे बीच
बैठते हैं हम जब भी बाहम
गुफ़्तगू करने कुछ ?
जी में आता है
धकेलकर पैरों से
उछाल दूँ उसे
दूर उफ़ुक़ पर
या फिर फ़ेंक दूं उठाकर
किसी गुलेल से |
ग़लती मेरी ही है
मैंने ही लायी थी
वो तस्वीर
चाँद वाली
और एक गुब्बारा भी लाया था
चाँद वाला
बड़े खुश हुए थे तुम
बातों ही बातों में
वादा कर दिया था मैंने
वो भी लाके दूंगा
जो चमकता है आसमाँ की गोद में |
माँगा था मैंने तब रात से
बस एक दिन के लिए
चाँद को
उधार में
हंस करके उसने कहा था
वो चाँदनी हंसी
अब भी याद है मुझे
कहा था उसने कैसे चिढाते हुए
ले जा सको तो ले जाओ
यहीं तो रखा है
इस ताक़ पे यहाँ |
बड़ी कशमकश हुई थी
तब चाँद के साथ
बस उठा ही लिया था उसे
पीठ पे मैंने अपने
के फुर्र करके जा बैठा था
वो फिर उसी ताक़ पे |
बहुत कोशिश की थी मैंने
तब हर शब
उतारने की उसको
मैं ज़ीना -ज़ीना चढ़ता था
वो ताक़ -ताक़ ऊपर उठता जाता था
थककर आखिर मैं एक दिन
तडके सुबह घर लौट आया था |
बड़ा एहसान -फ़रामोश है वो
कुछ ही दिन गए होंगें
फेंककर कर के एक फँदा
बचाया था डूबने से उसे
वादा किया था उसने
कम -स -कम एक दिन
आयेगा वो तुमसे मिलने
मेरे लिए |
छोडो ! जाने भी दो !
ना आया वो तो क्या हुआ ?
मैं दूँगा तुम्हे
रंगके इस कैनवास पे
हर रोज़
एक बेदाग़ नया चाँद
तुम्हारे लिए |
*********************************
चाहत यही
कि गुज़रे एक शाम
तुम्हारे साथ
करूँ महसूस
ज़मीं से ऊपर उड़ रहे कदमों को
हवा से लहराता हुआ बदन
कानों में गूँजता मल्हार.
चाहत ये भी कि
ठण्ड से सख्त हुए गालों पर
गर्म सेंक तुम्हारे हाथों की
और झुकी बंद पलकों पर
अनगिनत बोसे लबों के .
चाहत ज़रा सी
शामें अनगिनत
ढल जाएगी ज़िंदगी
ऐसी ही शाम में
कि चाहत फिर भी
रहेगी ज़िन्दा
गुज़रे एक शाम तुम्हारे साथ .........$$$$$
*********************************
माँ !!!
माँ तुम्हारी नम आँखें
बहा देती हैं
पूरा जहाँ मेरा
तुम्हारी इक मुस्कान
उड़ने को दे देती है
मुझे पूरा जहाँ
तुम्हारे चेहरे की शिकन
और मंथन
घनघोर अँधेरे में भी
चीर देती है मुझे
नज़र आता है फिर
उसी में
जीवन दर्पण
खोजती हूँ खुद को
तेरी साँसों में
जानती हूँ जबकि
तेरी रूह हूँ मैं
माँ… तुम हो तो हूँ मै ….
तुम हो तो ही मै …!!!
*********************************
सुर्ख औरत !
गर्म तंदूर या सुर्ख अंगारों पर
बनाए जाते हैं
स्वादिष्ट टिक्के
औरत की खूबसूरती का
राज़ भी यही
सेंकती है खुद को हर दिन
तपती है जलती है
और हो जाती है सुर्ख
अपनी तपिश में खुद को पकाकर
करती है पेश
समाज को
एक सभ्य सम्पूर्ण औरत
कि सभी को पसंद आती है
ख़ामोश…. सुर्ख….. दमकती औरत !
*********************************
चाँद टूटा और बिखरा …
चाँद टूटा और बिखरा किसने ये जाना यहाँ
हाँ बिखरती चाँदनी को सबने पहचाना यहाँ .
सूरज के उगते ही जहाँ में फैल गई रौशनी
तम को अस्तित्वहीन फिर सबने माना यहाँ .
दिल की ज़मीं नम है बहुत रोपने को बीज
लहलहाते लबों से ही मौसम सुहाना यहाँ .
वो समंदर क्या करे जो चाहे साहिल को बहुत
लहरों को सुनाता है वो दिल का फ़साना यहाँ.
हर राग है अलग यहाँ धुन भी अलग हुई
सुनेगा कौन इंदु अब किसका तराना यहाँ
*********************************
उदास मन …
उदास मन
उदास शामें
नापसंद हैं तो क्या
जो लिखी आपके हिस्से
वो मिलेंगी ज़रूर
जब भी गुज़रे
ऐसी शाम करीब से
न छूना
बस देखना ध्यान से
लिपटे हुए जीवन को
कुछ कसा कुछ दबा
बेचैन सा होगा व्याकुल
आने को बाहर
ज़रूरत
बस इतनी कि
फैला दो विस्तार मन का
मुस्कुरा दो
एक मुस्कान कर देगी उसे
सारे बंधनों से मुक्त
उदास शाम उसी पल
मुस्कुराता जीवन बन जाएगी .
*********************************
फ़लक पे चाँद
फ़लक पे लटका चाँद
चिढ़ाता नहीं
बल्कि लटका है वो
कई – कई फंदों में
झूल रहा है
पूर्णिमा से अमावास
इसलिए नहीं
कि उसे पसंद है
बल्कि हवा का दबाव
ही बहुत कम है
इतना कम
कि लटकते फंदों में भी
नहीं निकल रहा
उसका दम
जबकि चाहता है
वो मुक्ति
इस घुटन से
कि फ़लक पे लटकता
चाँद गुज़रता है
हर नज़र से …
*********************************
चाहत यही
कि गुज़रे एक शाम
तुम्हारे साथ
करूँ महसूस
ज़मीं से ऊपर उड़ रहे कदमों को
हवा से लहराता हुआ बदन
कानों में गूँजता मल्हार.
चाहत ये भी कि
ठण्ड से सख्त हुए गालों पर
गर्म सेंक तुम्हारे हाथों की
और झुकी बंद पलकों पर
अनगिनत बोसे लबों के .
चाहत ज़रा सी
शामें अनगिनत
ढल जाएगी ज़िंदगी
ऐसी ही शाम में
कि चाहत फिर भी
रहेगी ज़िन्दा
गुज़रे एक शाम तुम्हारे साथ .........$$$$$
*********************************
माँ !!!
माँ तुम्हारी नम आँखें
बहा देती हैं
पूरा जहाँ मेरा
तुम्हारी इक मुस्कान
उड़ने को दे देती है
मुझे पूरा जहाँ
तुम्हारे चेहरे की शिकन
और मंथन
घनघोर अँधेरे में भी
चीर देती है मुझे
नज़र आता है फिर
उसी में
जीवन दर्पण
खोजती हूँ खुद को
तेरी साँसों में
जानती हूँ जबकि
तेरी रूह हूँ मैं
माँ… तुम हो तो हूँ मै ….
तुम हो तो ही मै …!!!
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सुर्ख औरत !
गर्म तंदूर या सुर्ख अंगारों पर
बनाए जाते हैं
स्वादिष्ट टिक्के
औरत की खूबसूरती का
राज़ भी यही
सेंकती है खुद को हर दिन
तपती है जलती है
और हो जाती है सुर्ख
अपनी तपिश में खुद को पकाकर
करती है पेश
समाज को
एक सभ्य सम्पूर्ण औरत
कि सभी को पसंद आती है
ख़ामोश…. सुर्ख….. दमकती औरत !
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चाँद टूटा और बिखरा …
चाँद टूटा और बिखरा किसने ये जाना यहाँ
हाँ बिखरती चाँदनी को सबने पहचाना यहाँ .
सूरज के उगते ही जहाँ में फैल गई रौशनी
तम को अस्तित्वहीन फिर सबने माना यहाँ .
दिल की ज़मीं नम है बहुत रोपने को बीज
लहलहाते लबों से ही मौसम सुहाना यहाँ .
वो समंदर क्या करे जो चाहे साहिल को बहुत
लहरों को सुनाता है वो दिल का फ़साना यहाँ.
हर राग है अलग यहाँ धुन भी अलग हुई
सुनेगा कौन इंदु अब किसका तराना यहाँ
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उदास मन …
उदास मन
उदास शामें
नापसंद हैं तो क्या
जो लिखी आपके हिस्से
वो मिलेंगी ज़रूर
जब भी गुज़रे
ऐसी शाम करीब से
न छूना
बस देखना ध्यान से
लिपटे हुए जीवन को
कुछ कसा कुछ दबा
बेचैन सा होगा व्याकुल
आने को बाहर
ज़रूरत
बस इतनी कि
फैला दो विस्तार मन का
मुस्कुरा दो
एक मुस्कान कर देगी उसे
सारे बंधनों से मुक्त
उदास शाम उसी पल
मुस्कुराता जीवन बन जाएगी .
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फ़लक पे चाँद
फ़लक पे लटका चाँद
चिढ़ाता नहीं
बल्कि लटका है वो
कई – कई फंदों में
झूल रहा है
पूर्णिमा से अमावास
इसलिए नहीं
कि उसे पसंद है
बल्कि हवा का दबाव
ही बहुत कम है
इतना कम
कि लटकते फंदों में भी
नहीं निकल रहा
उसका दम
जबकि चाहता है
वो मुक्ति
इस घुटन से
कि फ़लक पे लटकता
चाँद गुज़रता है
हर नज़र से …
*********************************
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